Tuesday, February 5, 2013

मेरी टिप्पणी.. TABLE NO.21’ पर.....
TABLE NO.21 ... क्या अदांजा लगाते है आप इस नाम से... किसी रेस्त्रां या होटल के किसी टेबल का नंबर... फिल्म के प्रोमो भी इस फिल्म के बारे में आपकी कल्पनाओं को शायद यही मोड़ देते हैं कि फिल्म की कहानी किसी रेस्त्रां के टेबल नंबर 21 के गोल गोल ही घूमती रहेगी.... प्रोमो मे परेश रावल का गंदा लुक और कमीना अंदाज उनके विलन होने की ओर इशारा करता है... राजीव खंडेलवाल और टीना देसाई की तड़पन और मासूमियत इस इशारे को सच का मुखौटा भी पहना देता हैं...मुखौटा या ग़लतफहमी... दोनो के बीच फर्क महज तिल भर का है... अगर अंजान के बारे मे हमारी जानकारी या अंदाजा ग़लत निकले ले तो ये हमारी ग़लतफहमी ,जो विवान और सिया(राजीव खंडेलवाल और टीना देसाई) को खा़न (परेश रावल ) के बारे मे हो जाती है... कि वो उन्हे एक आसान से गेम के बाद 21 करोड़ देगा।   मुखौटा वो जो सिया ने अपने चेहरे पर लगा रखा है कि शादी के बाद उसकी हर रात सिर्फ विवान की रही है।  खैर मुखौटों से तो ये फिल्म भरी पड़ी है....किरदार दर किरदार..परत दर परत ...एक के बाद एक सवाल और हर सवाल के बाद एक नए मुखौटे की चीरन... लेकिन मुखौटों की उधड़न सिर्फ सवालों के बीच ही नहीं रहती.. इस फिल्म पर भी एक ऐसा मुखौटा है जिसके हटने पर जो कुछ भी सामने आता है पूरी मूवी में कोई उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता.. पूरी फिल्म में खा़न गेम और गेम के टास्क के नाम पर इन दोनो का बुरा हश्र कर देता है.. कभी विवान जो कि खून की एक बूंद भी देखकर बेहोश हो जाता है...को अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए अपना आधा लीटर खून खु़द निकालकर देना पड़ता है... एक बार को तो उसे अपनी बीवी के बाल भी हटाने पड़ते है,उसे गंजा करना होता है... हद तो तब हो जाती हैं जब सिया की इज़्जत सरेआम नीलाम हो जाती है.. खेल का एक पड़ाव ऐसा आता है जहां विवान को सिया की जान बचाने के लिए एक mentally discharge लड़के की जान लेनी होती है, लड़के को देखकर विवान और सिया कुछ समय के लिए फ्लैशबैक में चले जाते है...अपने कॉलेज के दिनों में....उनका एक जूनियर... जिसकी विवान सिया और उसके दोस्तों ने  जमकर रैगिंग ली थी... ये लड़का उनका वही पुराना जूनियर है..... और उसकी इस हालत के जिम्मेदार कोई और नहीं विवान सिया और उसके दोस्त ही हैं.... और ख़ान (परेश रावल) उस लड़के का बदनसीब बाप है... इस फिल्म में जो एक सबसे अलग और अनोखी चीज़ है किरदारों का बदल जाना मतलब फिल्म खत्म होते-होते नायक ख़लनायक और खलनायक नायक साबित होता है.. ख़ान चाहता तो विवान और सिया को मार सकता था लेकिन वो इन दोनों को ये कहकर आज़ाद कर देता है ... आज मेरा टास्क पूरा हुआ, तुम आराम से जा सकते हो..लेकिन एक बाप कभी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा... 
रैगिंग जैसे गंभीर विषय पर बनी इस फिल्म की सबसे बड़ी बुराई ये है कि पूरी फिल्म में कहीं भी एक बार भी ये एहसास नहीं होता कि इसका मूल विषय रैगिंग है। 1घंटे 37 मिनट की इस फिल्म में 1 घंटे 30 मिनट तक आपको इस बात का धैर्य रखना होगा कि आखिर ख़ान इनके साथ ये सबकुछ क्यों कर रहा है। संगीत के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं.. राजीव खंडेलवाल और परेश रावल कितने काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं लेकिन फिल्म में शायद उनके पास करने के लिए ज्यादा कुछ था नहीं..। डायरेक्टर आदित्य दत्त की कोशिश अच्छी है.. लेकिन कलाकारों को देखकर फिल्म से पहले जो उम्मीदें बंधती है   वो टूटती हुई नज़र आती है। 
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