Thursday, August 29, 2013

नहीं... मै आसाराम नहीं


नहीं..मैं आसाराम नहीं

चारों तरफ हंगामा है.. आसाराम बापू को लेकर.. बाबाओं को लेकर... उनके कृत्य एंव कार्यों का लेखाजोखा तो हर किसी के जब़ान पर ऐसे रटे हुएं है मानो स्कूल की कविता..। टीवी से लेकर ट्वीटर तक.. अखबार ले सेकर रेडियो तक.. फेसबुक पर भी आसाराम बाबू की अजब-गजब तस्वीरे अपलोड की जा रही है...रजनीकांत छोड़ अब बाबाऔं पर जोक बन रहें है.. लेकिन इन सब के बीच बाबाओं से संबधित एक अहम पहलू छूट रहा है....
  मै खुद एक ऐसे घर-परिवार में पला-बढ़ा जहां की दीवारों पर आपको सहजता से बाबाओं की तस्वीर टंगी मिल जाएंगी..घर के एक छोटे से मंदिर में धूपबत्ती,फूल और कपूर के साथ-साथ कंठी और माला भी मिल जाएगा। आश्रम, सत्संग और समागम..इन सबसे पुराना नाता है.. गुरू पर्व से लेकर होली-दीवाली और जन्माष्टमी जैसे कई पर्व मैने आश्रम में भी मनाए है।
सच है बचपन की घटनाएं दिमाग के किसी ना किसी हिस्से पर चस्पा हो ही जाती हैं.. 90 के दशक की कुछ धुंधली सी तस्वीर अभी भी जैसे मेरे आंखों के सामने ही है.. ये शायद 1996 की बात है..पापा स्मोक बहुत करते थे..पूरा घर परेशान था..हम इलाहाबाद में एक समागम में शामिल होने गए थे..पापा पहली बार ऐसे किसी बाबा के समागम में शामिल हुए थे..दो दिन बाद ना जाने पापा को क्या हुआ मैने उन्हे ढ़ेरों सिगरेट के पैकेट फेंकते देखा..और वो बोले आज से सिगरेट बंद..बिल्कुल बंद..।
शहर के साथ-साथ गांव-देहात में भी बाबाओं का प्रचार-प्रसार तेजी से फैल रहा था..मै अक्सर लोगों को ये कहते सुनता था.. आज फलां बाबा मेरे सपने में आए और कहा बेटा उठो.. देखों मैं आया हूं.. अब तुम ये सब दुनियाभर के पाप छोड़ो और दीक्षा ले लो..नामधारी बन जाओये तो चौरासी लाख योनियों का मेला है..कब तक भटकेगा..इससे बाहर निकल..मेरे पास आ..इस सपने के बाद अगले कुछ दिनों में ही सपने देखने वाला व्यक्ति दीक्षा ले लेता है..शिष्य बन जाता है.. क्योंकि उसे लगता है कि बाबा खुद उसके पास आए थे..उन्हे यूं सपनों में देखकर वो उनसे जुड़ाव महसूस करता है। अब दीक्षा लेने के मायने जो नहीं जानते उन्हे मोटा-मोटा बता दूं.. कि दीक्षा लेने के बाद आप किसी भी तरह का नशा नहीं कर सकते..ना शरब ना स्मोक।
मैं ऐसे सैकड़ों परिवारों का अदाहरण दे सकता हूं.. जहां लोग परिवार के किसी सदस्य के शराब पीने की लत से बुरी तरह परेशान थे.. और दीक्षा लेने के बाद उसकी ये आदत छूट गयी..और उनका परिवार आज हसी-खुशी मस्त है।
शराब से पर्शान परिवारों की ये घटनाएं सुनने में शायद छोटी लगे और बस यूं ही सी कोई बात लगे.. लेकिन असल में घर का एक ही कमाऊ लड़का जो शराबी निकल जाए तो परिवार के एक-एक सदस्य की जिंदगी नरक बन जाती है। (शराब के मुद्दे पर मैं अपना स्टेटश क्लीयर कर दूं कि मेरे हिसाब से इसका सेवन कतई बुरा नहीं..बस excess of anything is bad.. लेकिन छोटे परिवारों या ग्रामीण परिवारों में लोग limit में नहीं पीते..वहां बैठे तो जब तक लुढ़के नहीं..जाम नहीं छूटता)  खैर वापस मुद्दे पर .. तो कहने का मतलब ये है कि दीक्षा से कईयों की शराब और बाकी बुरी लतें छूट गयी।
इस पूरी गाथा का लब्बोलुआब ये है कि इन बाबाओं ने कुछ किया हो या ना किया हो.. लेकिन अपने प्रवचन से..भजनो से सत्संग से ऐसे कई परिवारों को रौशन कर दिया.. साथ ही इन बाबाओं ने उस जमाने से ही लोगों को अपने क्रोध और गुस्से  पर काबू करना सिखाया..जिसे modern युग anger management कहता है। इसके भी मेरे पास सैकड़ों उदाहरण है, बाबाओं की गुस्से पर काबू करने की तरकीबों ने घरेलू हिंसा के ना जाने कितने मामले यूं ही निपटा दिए।
लोग बाबाओं पर आरोप लगाते है कि वो भक्तों से पैसा लेते है... हां.. भक्तों का पैसा बाबाओं के पास जाता है.. मै मानता हूं..लेकिन ये हमेशा एक शिष्य की श्रद्धा और आस्था होती है कि वो कितना धन दे..और अगर वो ना भी दे तो बाबा या बाबा के आश्रम में किसी को कोई आपत्ति नहीं..कोई आपसे जबरदस्ती पैसे नहीं ले सकता।
इतना ही नहीं उनके आश्रम में चलने वाले भंडारों में जितना चाहे उतना खाना खा सकते हैं..बिना किसी पैसे के।
रायबरेली के पास..उतरांवा नाम की एक जगह है..अगर मै गलत नहीं तो शायद वहां कोई खाटूराम बाबा का अस्पताल चलता है.. आंखो का हर छोटा-बड़ा इलाज, ऑपरेशन भी वहां मुफ्त होता है। आचार्य श्री राम शर्मा जी के हरिद्वार के शांतिकुंज चले जाएं.. किसी जन्नत से कम नहीं है वो जगह..।  सत्य सांई बाबा ने लोगों के लिए क्या नहीं किया.. जिस गांव को सरकार पानी नहीं दे पायी..उसे सत्य सांई बाबा से पानी मिला।
उन सपनों को बेशक मै चमत्कार नहीं मानता... या किसी भी बाबा के किसी भी तरह के चमत्कार को मानने से इंकार करता हूं.. ये तो psychology भी कहती है कि अक्सर आपको ऐसे सपने आते है जिनके बारे में आप बहुत ज्यादा सुनते है..या बाते करते है..।
कुल मिलाकर आसाराम बापू के घिनौनेपन को छोड़ दे..तो आदमी वो भी काम के थे। और सिर्फ एक आसाराम बापू के चलते सभी बाबाओं को बदनाम करना या गाली देना सही नहीं है। गेहूं के साथ घुन भी पिसता है.. लेकिन इस संदर्भ(context) में हमें गेहूं और घुन के बीच अंतर करना ही होगा.. क्योंकि आखिर ये लाखों लोगों की आस्था का सवाल है।  

Monday, August 19, 2013

चेन्नई ओल्ड एक्सप्रेश 'न'


"चेन्नई ओल्ड एक्सप्रेश न"

यात्रीगण कृप्या ध्यान दें... 7th क्लास में था मै जब पहली बार अकेले ट्रेन से मुझे मामा के यहां जाना था.. पापा के मुंह से सुनी अपनी date of birth के हिसाब से उस वक्त मेरी उम्र 12-13 साल रही होगी।  फोन पर तो मैने बड़े चौड़ से कह दिया कि.. अरे..कोई दिक्कत नहीं मामू मै आराम से पहुंच जाउंगा.. आखिर सवाल अब होठों के ऊपर दिखने वाली हल्की-हल्की मूछों का था.. पर असल में मेरी सिट्-पिट्टी गुम थी... मन में सैकड़ों सवालों के बीच ये सवाल सबसे अहम था कि अगर मै ग़लत ट्रेन में चढ़ गया तो क्या होगा.. गाहे-बगाहे मुहल्ले की आंटीयों के मुहं से ग़लत ट्रेन पकड़ लेने से हुई दिक्कतों के बारे में कई सच्चे-झूठे किस्से सुन चुका था...... खैर ग़लत ट्रेन पर सवार होने से कई दिक्कतों का सामना हो सकता है.. ये तो मुझे अपनी पहली यात्रा से पहले बखूबी मालूम हो गया... लेकिन सही ट्रेन में बैठने का अनुभव भी क्या कभी इतना खतरनाक हो सकता है कि वो किसी 40 साल के हलवाई की जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हो जाए..?? ये बताया चेन्नेई एक्सप्रेस ने... हलवाई यानि राहुल, राहुल यानि शाहरूख.. आपको बता दे कि 'राहुल' नाम से ये शाहरूख की सांतवी फिल्म है.. इससे पहले वो दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे,यश बॉस, डर, कभी खुशी कभी ग़म, कुछ-कुछ होता है और दिल तो पागल है.. कर चुकें हैं।  खैर कहानी शुरू होती है..एक हलवाई(राहुल) की दुखभरी दास्तान से जो 99 साल के बड़े हलवाई यानि कि अपने दादा जी  को मन ही मन कोसता है कि उन्होने उसकी लाइफ के 40 साल इंक्लूडिंग जवानी.. खराब कर दी.. अब उसे इंतजार था तो बस दादा जी का विकेट गिरने का.. विकेट गिरा और दादा जी..फुर्रररररर.... राहुल को लगा कि 'बाबा मर गए और अब तो बैल बिक के रहेंगे' ..मतलब अब वो आजाद है .. ।
इंसानी फितरत है कि उसे किसी काम में तारीफ मिल जाए तो वो उस काम को बार-बार करने की कोशिश 0करता है.. राहुल भले ही कमीना था लेकिन था तो इंसान ही.. सो उसने भी वही इंसानी फितरत दिखायी.. राहुल ने अपनी पुरानी फिल्म डीडीएलजे का ट्रेन वाला सीन इतनी बार किया कि इस बार हीरोइन के साथ-साथ उसका पूरा खानदान ट्रेन में चढ़ गया.. खानदान भी मासाअल्लाह ऐसा-वैसा नहीं..चेन्नई के हिसाब से अत्यंत सुंदर-सुडौल और धारदार देशी हथियारों से लैस...। बस यहीं से शुरू होती है रोहित शेट्टी की कहानी.. वही फर्जी मारधाड़..वो ढेरसारी गाड़ियों का उछलना, टूटवा-फूटना वगैरह-वगैरह..जैसा कि रोहित की हर फिल्म में होता है.. फिल्म के इस हिस्से से दीपिका पादुकोण को छोड़ सबकुछ पुराना सा लगने लगता है.. पुरानी हिंदी फिल्मों की तरह पूर फिल्म में हीरो-हीरोइन गुंडो से बचकर भागते रहते है और आखिर में हीरो मारधाड़ कर के हीरोइन को जीत लेता है..हैप्पी एंडिंग।
      किंग ख़ान को बधाई..उनकी खुशी के लिए ये कहना चाहुंगा कि वो आज भी अपने फेशियल एक्सप्रेशन में माहिर है.. लेकिन हुजुर अब ये बहुत पुराने हो चुके.. आपका वही पुराना..माथे पर बल पड़ना..हकलाना..और इमोशनल सिचुवेशन में हल्के से मुस्कराकर होठों को कपकपांना.... सब पुराना..सब पुराना.. अरे साहब !  नई फिल्म थी कुछ तो नया किए होते...।
फिल्म के गानो में 'अहसान नहीं तेरा प्यार मांगा है' और 'बन के तितली दिल उड़ा' ही दिल को छूने वाले हैं..। विशाल-शेखर का संगीत अच्छा है। फरहाद साज़िद का संवाद भी बढ़िया है। एक्टिंग में तो शाहरूख और दीपीका को फुल मार्क्स...लेकिन हॉट दीपिका साड़ी में कुछ खास नहीं लगी..हां उन्होने साउथ के एक्सेंट पर काफी मेहनत की। और हां फिल्म के मेकअप आर्टिस्ट pompy hans को मेरा शत शत नमन..वो वाकई शाहरूख की असल उम्र छुपाने में पूरी तरह सफल रहे।
उस दिन मै सही ट्रेन में बैठा था और छोटी-मोटी दिक्कतो के साथ आराम से मामा के घर पहुंच गया था... चेन्नई एक्सप्रेस भी सही ट्रैक पर है और फिल्म अपनी मंजिल यानि 200 करोड़ के आंकड़े तक शायद पहुंच ही जाएगी... क्यूोंकि फिल्म में शाहरूख जो है.... उनकी जब तक है जान और चेन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्मों को दर्शकों का ऐसा रिस्पांड मिलना, ये बताता है कि शाहरूख अब अपना बोया हुआ काट रहें हैं
जाते-जाते लुंगी डांस के बारे में भी दो शब्द... शाहरूख अंकल फिल्म को हिट करने के लिए आपका नाम ही काफी था..बेकार में रजनीकांत चाचा का नाम बीच में घुसेड़ दिए.. आप ये गाना और डांस भले ही उन्हे डेडीकेट किएं हो.. पर क्या वो वाकई खुश है... कहना जरा मुशकिल है...। बहुत दिनों बाद हनी सिंह को कोई गंदा रैप करते सुना।
PS-- "और वैसे भी दादा जी ऑल इंडिया रेडियो से लेकर ट्विटर के जमाने तक जिंदा रहें है..वो एक अच्छीखासी उम्र जीकर गए हैं..और क्या चाहिए।"
(राहुल-- दादा जी के मरने परः)

'वही पुरानी.... 'एक बात' '


एक बात जो दिल में रखी है...तेरे भी और मेरे भी.
एहसास जो बनकर बैठी है..तुझमें भी और मुझमें भी..
पुराने बैग की छोटी जेब से.. आज़ फिर वो सामने आयी है..
वो ख्वाहिश तेरे भीतर की..वो हलचल मेरे अंदर की 
ना चाहूं तो अब आती है.. याद तेरे हर पल की..
यादों की उन सिकुड़न से.. कुछ कागज़ पुराने मिले है..
सपनों की स्याही में कुछ अफसाने नज़राने मिले है...
स्याही फीकी पड़ गयी है...लेकिन हां सपने वही है..तेरे भी और मेरे भी..
वादों की लफ्फाज़ी से उसपे..एक कल की दुनिया उकेरी थी..
बाहर की आपाधापी से वाकई..वो दुनिया सुनहरी थी..
तुमने कहा था हम साथ है..ना कोई यहां है ना वहां होगा..
पर वो दुनिया शायद छोटी थी..मेरे जज़्बात तो फिर भी खुश थे..तेरे अरमान बहुतेरे थे..
तू चली गयी उस दुनिया में..जो बहुत बड़ी थी..बहुत बड़ी थी   
तू खो गयी थी उस दुनिया में.. जो बहुत बड़ी थी..बहुत बड़ी थी  
आगे आगे तू बढ़ती गयी..ना सोचा ना समझा.. कि मै तो पीक्षे ही छूट गया
वादें..सपने ..वो दुनिया.. तुझ बिन तो सब टूट गया..
हर इक पल में मै जलता था जब मुझसे मिलना छूट गया..
कैसे समझाऊं तुझे..कैसे बतलाऊं तुझे.. मुझसे जो मेरी ही अनबन थी..
ना चाहकर भी तूझसे मै दूर इतना अब जाता हूं..
समझे तू भी है जाने तू भी है..कि तुझ बिन मेरा कोई और नहीं..
समझे है तू भी है मेरी टीस को..पर अंजान बनकर खुश रहती है..
हो सकता है मै गलत था..पर उसमे भी तो चाहत तेरी ही थी.. 
मै इंतजार अब भी करता हूं..इक दिन तू वापस आएगी..
अधूरे सपनों को पूरा करने..हां उन वादों को पूरा करने.. जो तेरे भी हैं और मेरे भी.. 
एहसास जो बनकर अब तक बैठी है..तुझमें भी और मुझमें भी..
हां तुम आओगी..लौट आओगी..ज़रूर आओगी..

'वही पुरानी.... 'एक बात' '


एक बात जो दिल में रखी है...तेरे भी और मेरे भी.
एहसास जो बनकर बैठी है..तुझमें भी और मुझमें भी..
पुराने बैग की छोटी जेब से.. आज़ फिर वो सामने आयी है..
वो ख्वाहिश तेरे भीतर की..वो हलचल मेरे अंदर की 
ना चाहूं तो अब आती है.. याद तेरे हर पल की..
यादों की उन सिकुड़न से.. कुछ कागज़ पुराने मिले है..
सपनों की स्याही में कुछ अफसाने नज़राने मिले है...
स्याही फीकी पड़ गयी है...लेकिन हां सपने वही है..तेरे भी और मेरे भी..
वादों की लफ्फाज़ी से उसपे..एक कल की दुनिया उकेरी थी..
बाहर की आपाधापी से वाकई..वो दुनिया सुनहरी थी..
तुमने कहा था हम साथ है..ना कोई यहां है ना वहां होगा..
पर वो दुनिया शायद छोटी थी..मेरे जज़्बात तो फिर भी खुश थे..तेरे अरमान बहुतेरे थे..
तू चली गयी उस दुनिया में..जो बहुत बड़ी थी..बहुत बड़ी थी   
तू खो गयी थी उस दुनिया में.. जो बहुत बड़ी थी..बहुत बड़ी थी  
आगे आगे तू बढ़ती गयी..ना सोचा ना समझा.. कि मै तो पीक्षे ही छूट गया
वादें..सपने ..वो दुनिया.. तुझ बिन तो सब टूट गया..
हर इक पल में मै जलता था जब मुझसे मिलना छूट गया..
कैसे समझाऊं तुझे..कैसे बतलाऊं तुझे.. मुझसे जो मेरी ही अनबन थी..
ना चाहकर भी तूझसे मै दूर इतना अब जाता हूं..
समझे तू भी है जाने तू भी है..कि तुझ बिन मेरा कोई और नहीं..
समझे है तू भी है मेरी टीस को..पर अंजान बनकर खुश रहती है..
हो सकता है मै गलत था..पर उसमे भी तो चाहत तेरी ही थी.. 
मै इंतजार अब भी करता हूं..इक दिन तू वापस आएगी..
अधूरे सपनों को पूरा करने..हां उन वादों को पूरा करने.. जो तेरे भी हैं और मेरे भी.. 
एहसास जो बनकर अब तक बैठी है..तुझमें भी और मुझमें भी..
हां तुम आओगी..लौट आओगी..ज़रूर आओगी..

Tuesday, February 5, 2013

मेरी टिप्पणी.. TABLE NO.21’ पर.....
TABLE NO.21 ... क्या अदांजा लगाते है आप इस नाम से... किसी रेस्त्रां या होटल के किसी टेबल का नंबर... फिल्म के प्रोमो भी इस फिल्म के बारे में आपकी कल्पनाओं को शायद यही मोड़ देते हैं कि फिल्म की कहानी किसी रेस्त्रां के टेबल नंबर 21 के गोल गोल ही घूमती रहेगी.... प्रोमो मे परेश रावल का गंदा लुक और कमीना अंदाज उनके विलन होने की ओर इशारा करता है... राजीव खंडेलवाल और टीना देसाई की तड़पन और मासूमियत इस इशारे को सच का मुखौटा भी पहना देता हैं...मुखौटा या ग़लतफहमी... दोनो के बीच फर्क महज तिल भर का है... अगर अंजान के बारे मे हमारी जानकारी या अंदाजा ग़लत निकले ले तो ये हमारी ग़लतफहमी ,जो विवान और सिया(राजीव खंडेलवाल और टीना देसाई) को खा़न (परेश रावल ) के बारे मे हो जाती है... कि वो उन्हे एक आसान से गेम के बाद 21 करोड़ देगा।   मुखौटा वो जो सिया ने अपने चेहरे पर लगा रखा है कि शादी के बाद उसकी हर रात सिर्फ विवान की रही है।  खैर मुखौटों से तो ये फिल्म भरी पड़ी है....किरदार दर किरदार..परत दर परत ...एक के बाद एक सवाल और हर सवाल के बाद एक नए मुखौटे की चीरन... लेकिन मुखौटों की उधड़न सिर्फ सवालों के बीच ही नहीं रहती.. इस फिल्म पर भी एक ऐसा मुखौटा है जिसके हटने पर जो कुछ भी सामने आता है पूरी मूवी में कोई उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता.. पूरी फिल्म में खा़न गेम और गेम के टास्क के नाम पर इन दोनो का बुरा हश्र कर देता है.. कभी विवान जो कि खून की एक बूंद भी देखकर बेहोश हो जाता है...को अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए अपना आधा लीटर खून खु़द निकालकर देना पड़ता है... एक बार को तो उसे अपनी बीवी के बाल भी हटाने पड़ते है,उसे गंजा करना होता है... हद तो तब हो जाती हैं जब सिया की इज़्जत सरेआम नीलाम हो जाती है.. खेल का एक पड़ाव ऐसा आता है जहां विवान को सिया की जान बचाने के लिए एक mentally discharge लड़के की जान लेनी होती है, लड़के को देखकर विवान और सिया कुछ समय के लिए फ्लैशबैक में चले जाते है...अपने कॉलेज के दिनों में....उनका एक जूनियर... जिसकी विवान सिया और उसके दोस्तों ने  जमकर रैगिंग ली थी... ये लड़का उनका वही पुराना जूनियर है..... और उसकी इस हालत के जिम्मेदार कोई और नहीं विवान सिया और उसके दोस्त ही हैं.... और ख़ान (परेश रावल) उस लड़के का बदनसीब बाप है... इस फिल्म में जो एक सबसे अलग और अनोखी चीज़ है किरदारों का बदल जाना मतलब फिल्म खत्म होते-होते नायक ख़लनायक और खलनायक नायक साबित होता है.. ख़ान चाहता तो विवान और सिया को मार सकता था लेकिन वो इन दोनों को ये कहकर आज़ाद कर देता है ... आज मेरा टास्क पूरा हुआ, तुम आराम से जा सकते हो..लेकिन एक बाप कभी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा... 
रैगिंग जैसे गंभीर विषय पर बनी इस फिल्म की सबसे बड़ी बुराई ये है कि पूरी फिल्म में कहीं भी एक बार भी ये एहसास नहीं होता कि इसका मूल विषय रैगिंग है। 1घंटे 37 मिनट की इस फिल्म में 1 घंटे 30 मिनट तक आपको इस बात का धैर्य रखना होगा कि आखिर ख़ान इनके साथ ये सबकुछ क्यों कर रहा है। संगीत के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं.. राजीव खंडेलवाल और परेश रावल कितने काबिल हैं ये बताने की जरूरत नहीं लेकिन फिल्म में शायद उनके पास करने के लिए ज्यादा कुछ था नहीं..। डायरेक्टर आदित्य दत्त की कोशिश अच्छी है.. लेकिन कलाकारों को देखकर फिल्म से पहले जो उम्मीदें बंधती है   वो टूटती हुई नज़र आती है। 
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Friday, January 4, 2013

"फिर फिर दबंग"


उत्तर प्रदेश के लालगंज और कानपुर के बीच का एक बीहड़ गांव..गांव का नाम तकिया पाटन .... और गांव के एक बेहद नामचीन रंगबाज सिनेमाबाजं हरिहर पांडे...सिर्फ नाम ही काफी हैं.... दबंग-2 के सिनेमा  का पर्दा गांव के इकलौते सिनेमाघर में टंग चुका था... एक तो बात बिरादरी की(चुलबुल पांडे, हरिहर पांडे) ऊपर से पड़ोस की..सो भइया कब तक कंट्रोल करते..शर्ट के पिछवाड़े पे ऐनक टांगे और घर पर  "आते हैं" बोलकर रवाना हो लिए... अब सड़क पर सिर्फ दो ही आवाजे गूंज रही थी...फट फट करती फटफटिया और फटफटिया पर सवार पांडे भैया...और उनका गाना... हुड़ हुड़ दबंग दबंग.. भइया जी की सिंगिग से आधा गांव तो जान ही गया की आज PANDEYS  के मिलन की बेला हैं.. लेकिन कहानी मे ट्विस्ट था.... 2 घंटे 10 मिनट बाद जब भैया जी बाहर निकले तो "भैया जी NOT SMILING" की मुद्रा में थे... टोला (मोहल्ला) में वापस पहुंचे तो हमेशा की तरह कुछ छुटभैय्ये मालिक मालिक करते लग लिए उनके पीछे-पीछे और लगे रिरियाने...  पांडे भैय्या बताइए ना कैसन है नई दबंग...हम देखेक तो पइब ना सुन्हिन के जरा मजा लई लेई... पाडें जी पहले तो थोड़ा सकुचाए....और  चल दिए... लेकिन फिर पाडें जी ना जाने डीपली घुस के का सोचे....ठहर गए... और... और का सज गया दरबार..... पांडे जी छन्नू  द्वारा सजाए गए अत्यंत मलिच्छ गमछे पर विराजमान हुए.....और बोले स्वागत नही करोगे हमारा... इत्तै सुनिके सब हैरान... टकटकी लगाके सब पांडे जी को लगे घूरने... इससे पहले कि वो लोग और कुछ बोलते पांडे जी बोल पड़े... डॉयलाग है फिलम का....   अब मुंह मे पान और बगल मा पीकदान.... और साथ साथ दबंग-2 का व्याख्यान.... जो कुछ यूं था........   
याके रहे चुलबुल पांडे.. खूब हट्टे- कट्टे खूब पहलवान.... ये भारी भारी डोले.. ये फूला-फूला  सीना...पुलिस में दरोगई करत रहें.. कबो लालगंज मा तो कबो कानपुर मा.. कबो यै थाने तो कबो  वै  थाने..हियां  छेदी  तो हुआं  बच्चा... छेदी क ते शरीरी मा इत्ते छेद किहिन रहें कि ऊ वाकई कन्फूजिया गा रहे कि सांस कहां ते लेई अउ ***** कहां ते ....मूलो बच्चा क ते कैवल  ठर्राईन   औ लतियाईन ज्यादा  जूतियेईबो नहीं भें.. और तो और बच्चा पर कौनो नीक डॉयलागो नहीं मारिन..  भैया है बड़े स्वीट...नाच गाने के बहुतै शौकीन..कबो कबो तो थाने मे बैठे ऑन ड्यूटी बजाए हाय पांडे जी सीटी..  और तो और भइया  नईकेरे हुड़ हुड़ दबंग पर तो एइसन कमरिया लचिकाईन है कि ससुरी मुन्निऊ झेंपियां जाए.....
इतना सुनते सुनते लटक के बैठा छग्गन पलथी मार कर बैठने की कोशिश करने लगा... लेकिन पांडें भैया ने झड़क दिया... अबे इतना का फैल रहा है बे... कहानी खत्तम...फिनीश(finish)....
छग्गन और पार्टी-- खत्तम !!!!   कैइसे!!! ऊ झंडुबाम वाली हिरोइन ...... मुन्नी..???
पांडे जी-- अबे मुन्नी की जगह येहि बार औ कौनो नइकी हिरोइन लाए रहें...गाना बड़ा नीक  गाइस रहे... गाना सुन कै तो एक बार हमहुं नाचे लागेन रहे... फोटो को सीने से यार चिपका ले संइया फेवीकेल से.. लौंडिया पटाएंगे मिस कॉल से.. मूलो मुन्नी वाली बात ना रहे...
छग्गन और पार्टी-- औ भइया रज्जो ???????
पांडे जी-- रज्जो. तो ना तबहिन कुछो खास रही ना अबहिन... हां तनिक और दिलेर होइगे.. थप्पड़ को साथै अब वहिका प्यारो स डर नही लागत... हां चुलबुल पांडे जी की तरफ से जरूर ऊका  इस्टेटस (STATUS) थोड़ा चेंज होई गवा है...
छग्गन और पार्टी-- ऊ कईसे ???
पांडे जी---  ऊ अइसे कि पिछली बार चुलबुल पांडे जी मार जिद्दीयायें पड़े रहें... गुड़ियान मुड़ियान(लोटना) जात रहें कि थारी आंखो के पैमाने...हमका पीनी है पीनी है पीनी है.... औ अबकी वई आंखन का गरियात रहे...कहत रहें... दगाबाज़ रे हाय दगाबाज़ रे..तोरे नैना बड़े दगा बाज़ रे...
छग्गन और पार्टी--- औ भइय्या ऊ मक्खी औ उनके पापा ???
पांडे जी--  अबे जान ले लोगे हमारी..मुफत मे सारे मजे लेगा बे..हायं.. खैर मक्खी भैया भी रहें...साला जंगल से लौटेन मा कुछ ज्यादाऐ समय लगा दिहिन.. पर ससुरा लौटे ता का लौटे..कौनो काम के नाही... पिता जी भी ठीकै-ठाक रहें....  औ इनके अलावां वई तिवारी औ वई चौबे..
छग्गन और पार्टी--- अरे तो भइया फिलम मा नवा का रहे... सुने मा तो सब कुछ पुरान लागत..
इस बार पाडें जी थोड़ा लंबा पाउससस (PAUSE) लैइ लिहें.... मुहं से बीड़ी निकाले....फेकें....रगड़े... औ फिर बोले.. अबे नया था उनका कमीटमेंट जो ऊ एक बार कई दें तो अपैं बापो की नायी सुनत... समझेअऊ.. औ हम तो इहे कहब कि इससे पहले ऊ दबंग-3 बनावे का कमीटमेंट करें उन्है कोई तो रोक ले.... वरना पब्लिक पर सलमान भाई की अदा का जो दबाव है ऊ खत्म होई जाई....औ भइया एकार्डिंग टू  एसपी साहब(मनोज पहवा) दबाव बना रहना चाहिए.... समझेअउ कि नाहीं... चलो अच्छा..... अब निकलों.. खेला खतम... औ हां फिल्म मा नया भलै कछु नवा ना हो लेकिन फिलम बुरी भी ना है... मार धाड, गाना -बजाना.. एक बार तो देखे लायक हैइये... और फिर सलमान तो हैइये लल्लनटॉप....मतलब पैसा भी हजम....।   
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Thursday, December 13, 2012

“Please… अब तो बड़े हो जाइए”


“Please… अब तो बड़े हो जाइए

बचपन की एक बात बताता हूं... एक दिन पापा गुलाब जामुन लाए, हम बहुत खुश हुए...ये हमारी फेवरेट स्वीट डिश जो है। वैसे तो उन दिनों पृथ्वी पर हमारे आगमन को जुम्मा जुम्मा चार पॉच साल ही हुए थे..पर चूंकि हम घर में सबसे छोटेऔर दुलारे थे इसलिए थोड़ा सिर चढे हुए थे..या फिर थोड़े से शायद थोड़ा ज्यादा। हर बात में जिद्द, हर चीज को तुरन्त पा लेने की बेफिजूल चाहत...और घर में आने वाली हर चीज पर अपना सबसे बड़ा हिस्सा... जो अक्सर मिल ही जाता था.. और खुदा ना खास्ता अगर नहीं मिला तो चीखों का दौर, ऑसुओं का सैलाब और कोहराम..घर इन तीन चीजों का मिश्रण बन जाता था। इस उम्र के शायद सभी बच्चें ऐसे ही होते हैं.. हर चीज में बस मेरा मेरा का ही राग अलापते हैं.. मुझे ये चाहिेए..मुझे वो चाहिेए..और कई बार तो 'सिर्फ मुझे' ही चाहिए.. किसी और को मिले या ना मिले..भाड़ में जाए खैर गुलाब जामुन पर वापस आते हैं.. अपनी फेवरेट चीज देखकर हम एक बार फिर बौरा गए..कर बैठे जिद्द.."सिर्फ हम खाएंगे.. किसी को नहीं देगें"  हालांकि ये सभी जानते थे कि इतने सारे गुलाब जामुन अकेले हमारे बूते के नहीं.. इसलिए सब हमारी नौटंकी देखते रहे..सहते रहे.. पर बात गुलाब जामुन की थी..सो बड़े भइया से रहा ना गया..उनकी बेकरारी छलांग मार गयी और वो हम पर.. मेरे और उनके बीच गुलाब जामुन के लिए जद्दोजहद शुरू हो चुकी थी.. घर में शोर शुरू हो चुका था.. कभी उनकी जोर की डांट का तो कभी उनकी उस डांट से निकलने वाली मेरी इमोशनल चीखों का। गुलाब जामुन ठंडे हो रहे थे और माहौल गरम... इसी गरमा गरमी में बढ़कऊ ने finally हमारे तड़ा तड़ दो कंटाप जड़ दिए.. बस फिर क्या था गुलाब जामुन से बेवफा होकर हम जग सूना सूना टाइप लगे रोने...चीघांड़ मार मार के..
पापा को भाई की ये हरकत बहुत बुरी लगी उन्होनें भाई को मारा तो नहीं लेकिन डॉटां बहुत.. पापा ने कहा अभी वो बच्चा है, नादान है.. इतना मेच्योर नहीं हैं कि सबके बारे में सोच सकें...... बड़ा होगा तो समझ जाएगा.. उनको डांट पड़ी मै खुश हो गया..और मुझे डांट ना पड़े इस डर से शराफत से सबको खुद ही गुलाब जामुन जा जा कर दिए..भाई को तो अपने हॉथ से खिलाए..
इस घटना को 17-18 साल हो चुके हैं..पर पापा की वो बात अभी तक याद है.. अभी वो बच्चा है, नादान है.. इतना मेच्योर नहीं हैं कि सबके बारे में सोच सकें...... बड़ा होगा तो समझ जाएगा.. मै बड़ा तो हो गया..शायद enough मेच्योर भी पर... जिस बड़प्पन की बात पापा ने कही थी वो बड़प्पन किसी में दिखायी नहीं पड़ता। आज इस नौकरीपेशा जिंदगी में सभी को अपनी मस्ती में मस्त देखता हूं.. दीन-दुनिया तो दूर की, लोग अपने ही कोलीग से कोई खास मतलब रखना नहीं चाहते। सबके बारे में या फिर अपने ही साथी के हित के बारें में सोंचना मानो महापाप हो गया हो ..     अब लोगों का मानना है कि किसी और के बारे में नही सिर्फ अपने बारें में सोंचो। ये cut throat competition का जमाना है.. जहां दूसरो की भलाई एक गुनाह और किसी के लिए त्याग आपके immature होने का सबसे बड़ा सबूत। पापा की परिभाषा के हिसाब से अब मै बड़ा हो चुका हूं, मेच्योर हो चुका हूं..क्योंकि अब मै अपनी हर चीज आसानी से शेयर कर सकता हूं...अपनी इच्छाओं के साथ साथ दूसरों की भावनाओं का भी ख्याल करता हूं..और मुझे भी यही अच्छा लगता हैं...यही सही लगता है..emotional level पर भी और professional level पर भी। मुझे पापा की बातों पर कोई शक नहीं। इसलिए मै भी इसी बात पर जोर दूंगा कि इतना पढ़ लिखकर भी अगर कोई सिर्फ अपने बारे में सोच पाता है तो ये वाकई निराशाजनक हैं..साथ ही ये कई सवाल खड़े करता है आपकी संस्कृति पर, आपकी शिक्षा पर। मेरे एक मित्र का कहना हैं कि अपने लिए सबको आवाज़ उठानी पड़ेगी..सही है..बेशक आवाज़ उठाएं लेकिन दूसरों की आवाजं भी सुने।   
दिल तो बच्चा है जी का तमगा सुनने में तो कमाल लगता हैं पर यकीन माने ये तमगा सिर्फ इश्क की गलियों तक ही फरमाया जाए तो बेहतर... क्योंकि इश्क की गली के बाहर जिंदगी के कई चौराहों पर सच्चे और अच्छे लोगों का साथ बहुत जरूरी है और ये तभी संभव है जब हम सब सिर्फ अपने बारे में नहीं , सबके बारे में भी ना सही पर कम से कम अपनों के बारे में अपने साथीयों के बारे में सोचेंगें.... इसलिए अब प्लीज बड़े हो जाइए..वरना ये जिंदगी पापा नहीं बढ़कऊ की तरह है जो समझाती कम और मारती ज्यादा है।
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