“Please… अब तो बड़े हो जाइए”
बचपन की एक बात बताता हूं... एक दिन पापा गुलाब जामुन लाए, हम बहुत खुश हुए...ये हमारी फेवरेट स्वीट डिश जो है। वैसे तो उन दिनों पृथ्वी पर हमारे आगमन को जुम्मा जुम्मा चार पॉच साल ही हुए थे..पर चूंकि हम घर में सबसे छोटेऔर दुलारे थे इसलिए थोड़ा सिर चढे हुए थे..या फिर थोड़े से शायद थोड़ा ज्यादा। हर बात में जिद्द, हर चीज को तुरन्त पा लेने की बेफिजूल चाहत...और घर में आने वाली हर चीज पर अपना सबसे बड़ा हिस्सा... जो अक्सर मिल ही जाता था.. और खुदा ना खास्ता अगर नहीं मिला तो चीखों का दौर, ऑसुओं का सैलाब और कोहराम..घर इन तीन चीजों का मिश्रण बन जाता था। इस उम्र के शायद सभी बच्चें ऐसे ही होते हैं.. हर चीज में बस मेरा मेरा का ही राग अलापते हैं.. मुझे ये चाहिेए..मुझे वो चाहिेए..और कई बार तो 'सिर्फ मुझे' ही चाहिए.. किसी और को मिले या ना मिले..भाड़ में जाए । खैर गुलाब जामुन पर वापस आते हैं.. अपनी फेवरेट चीज देखकर हम एक बार फिर बौरा गए..कर बैठे जिद्द.."सिर्फ हम खाएंगे.. किसी को नहीं देगें" हालांकि ये सभी जानते थे कि इतने सारे गुलाब जामुन अकेले हमारे बूते के नहीं.. इसलिए सब हमारी नौटंकी देखते रहे..सहते रहे.. पर बात गुलाब जामुन की थी..सो बड़े भइया से रहा ना गया..उनकी बेकरारी छलांग मार गयी और वो हम पर.. मेरे और उनके बीच गुलाब जामुन के लिए जद्दोजहद शुरू हो चुकी थी.. घर में शोर शुरू हो चुका था.. कभी उनकी जोर की डांट का तो कभी उनकी उस डांट से निकलने वाली मेरी इमोशनल चीखों का। गुलाब जामुन ठंडे हो रहे थे और माहौल गरम... इसी गरमा गरमी में बढ़कऊ ने finally हमारे तड़ा तड़ दो कंटाप जड़ दिए.. बस फिर क्या था गुलाब जामुन से बेवफा होकर हम जग सूना सूना टाइप लगे रोने...चीघांड़ मार मार के..।
पापा को भाई की ये हरकत बहुत बुरी लगी उन्होनें भाई को मारा तो नहीं लेकिन डॉटां बहुत.. पापा ने कहा अभी वो बच्चा है, नादान है.. इतना मेच्योर नहीं हैं कि सबके बारे में सोच सकें...... बड़ा होगा तो समझ जाएगा..। उनको डांट पड़ी मै खुश हो गया..और मुझे डांट ना पड़े इस डर से शराफत से सबको खुद ही गुलाब जामुन जा जा कर दिए..भाई को तो अपने हॉथ से खिलाए..।
इस घटना को 17-18 साल हो चुके हैं..पर पापा की वो बात अभी तक याद है.. “अभी वो बच्चा है, नादान है.. इतना मेच्योर नहीं हैं कि सबके बारे में सोच सकें...... बड़ा होगा तो समझ जाएगा..” मै बड़ा तो हो गया..शायद enough मेच्योर भी पर... जिस बड़प्पन की बात पापा ने कही थी वो बड़प्पन किसी में दिखायी नहीं पड़ता। आज इस नौकरीपेशा जिंदगी में सभी को अपनी मस्ती में मस्त देखता हूं.. दीन-दुनिया तो दूर की, लोग अपने ही कोलीग से कोई खास मतलब रखना नहीं चाहते। सबके बारे में या फिर अपने ही साथी के हित के बारें में सोंचना मानो महापाप हो गया हो ।.. अब लोगों का मानना है कि किसी और के बारे में नही सिर्फ अपने बारें में सोंचो। ये cut throat competition का जमाना है.. जहां दूसरो की भलाई एक गुनाह और किसी के लिए त्याग आपके immature होने का सबसे बड़ा सबूत। पापा की परिभाषा के हिसाब से अब मै बड़ा हो चुका हूं, मेच्योर हो चुका हूं..क्योंकि अब मै अपनी हर चीज आसानी से शेयर कर सकता हूं...अपनी इच्छाओं के साथ साथ दूसरों की भावनाओं का भी ख्याल करता हूं..और मुझे भी यही अच्छा लगता हैं...यही सही लगता है..emotional level पर भी और professional level पर भी। मुझे पापा की बातों पर कोई शक नहीं। इसलिए मै भी इसी बात पर जोर दूंगा कि इतना पढ़ लिखकर भी अगर कोई सिर्फ अपने बारे में सोच पाता है तो ये वाकई निराशाजनक हैं..साथ ही ये कई सवाल खड़े करता है आपकी संस्कृति पर, आपकी शिक्षा पर। मेरे एक मित्र का कहना हैं कि अपने लिए सबको आवाज़ उठानी पड़ेगी..सही है..बेशक आवाज़ उठाएं लेकिन दूसरों की आवाजं भी सुने।
दिल तो बच्चा है जी का तमगा सुनने में तो कमाल लगता हैं पर यकीन माने ये तमगा सिर्फ इश्क की गलियों तक ही फरमाया जाए तो बेहतर... क्योंकि इश्क की गली के बाहर जिंदगी के कई चौराहों पर सच्चे और अच्छे लोगों का साथ बहुत जरूरी है और ये तभी संभव है जब हम सब सिर्फ अपने बारे में नहीं , सबके बारे में भी ना सही पर कम से कम अपनों के बारे में अपने साथीयों के बारे में सोचेंगें.... इसलिए अब प्लीज बड़े हो जाइए..वरना ये जिंदगी पापा नहीं बढ़कऊ की तरह है जो समझाती कम और मारती ज्यादा है।
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